Wednesday, May 15, 2019


वो जब तकरीर करता है कोई अवतार लगता है
मगर झूठा मुझे उसका यही किरदार लगता है

दिखाई जो नहीं देता हक़ीकत में कहीं यारों
नुमाइश में उसीके आजकल अखबार लगता है

गरजते तो दिखाई दे रहे बादल यहाँ कितने
बरसने का नहीं उनका मगर आसार लगता है

बड़ी सहमी हुई सी आजकल है आबरू अपनी
उसे ही लूटने को हर कोई तैयार लगता है

जो बनता है बिगड़ता है नफ़ा नुकसान के दमपर
उसे रिश्ता कोई कहले मगर व्यापार लगता है

अदालत की नजर में शख्स वो मुज़़रिम तो है लेकिन
सियासत में वही सबका अभी सरदार लगता है

जो करता है वतन के ख्वाब से खिलवाड़ यूँ हरदिन
दिमागी तौर पर वह आदमी बीमार लगता है

अब इतना बोलबाला है फ़रेबी का यहाँ लोगो
कि जो ईमानवाला है वही ग़द्दार लगता है

कभी वह भूलकर अब चाँद को मामा नहीं कहता
हमारे दौर का बच्चा बड़ा हुश्यार लगता है

शंभु शरण मंडल

प्रकाशित हिन्दी मासिक हंस मई 2019


वो जब तकरीर करता है कोई अवतार लगता है
मगर झूठा मुझे उसका यही किरदार लगता है

दिखाई जो नहीं देता हक़ीकत में कहीं यारों
नुमाइश में उसीके आजकल अखबार लगता है

गरजते तो दिखाई दे रहे बादल यहाँ कितने
बरसने का नहीं उनका मगर आसार लगता है

बड़ी सहमी हुई सी आजकल है आबरू अपनी
उसे ही लूटने को हर कोई तैयार लगता है

जो बनता है बिगड़ता है नफ़ा नुकसान के दमपर
उसे रिश्ता कोई कहले मगर व्यापार लगता है

अदालत की नजर में शख्स वो मुज़़रिम तो है लेकिन
सियासत में वही सबका अभी सरदार लगता है

जो करता है वतन के ख्वाब से खिलवाड़ यूँ हरदिन
दिमागी तौर पर वह आदमी बीमार लगता है

अब इतना बोलबाला है फ़रेबी का यहाँ लोगो
कि जो ईमानवाला है वही ग़द्दार लगता है

कभी वह भूलकर अब चाँद को मामा नहीं कहता
हमारे दौर का बच्चा बड़ा हुश्यार लगता है

शंभु शरण मंडल

प्रकाशित हिन्दी मासिक हंस मई 2019

Tuesday, September 4, 2018

  हो कंसों के साथ कन्हैया

अहले गोकुल पूछ रहे हैं इक छोटी सी बात कन्हैया
छोड़ के हमको बोलो कैसे हो कंसों के साथ कन्हैया

नाम तुम्हारा ले लेकर वो मुझको ही ललकार रहे
 भक्त बने सब खींच रहे हैैं चीर मेरा दिन-रात कन्हैया

नाग द्वेष का फन काढ़े फिर आ बैठा है यमुना में
साथ हमारे है तो पहले आके उसको नाथ कन्हैया

दहशत का पहरा है अबके होठ पे सबके ताले हैं
सांँसत में हैं इस धरती पर फिर गांँधी सुकरात कन्हैया

मानवता की लाज बचाने आए थे तुम धरती पर
दिखला दो इसबार वही फिर से  औकात कन्हैया

माल ख़ज़ाने मत दो हमको तुमसे है अरदास यही
देना है तो दे जाओ बस इज़्ज़त की सौगात कन्हैया

पनघट सारे सूने सूने सहमी सहमी राधा है
बेकाबू-सी फ़ैल रही है दुष्कर्मों की रात कन्हैया

शंख महाभारत का  तुमने  फूंक दिया था जाने क्यों
चुप बैठे हो बदतर है जब उससे भी हालात कन्हैया

प्रलय बिगुल हम फूंक रहे हैं कर देना तू माफ़ हमें
सहते जाएंगे कबतक यूं ज़ुल्मों के आघात कन्हैया


  हो कंसों के साथ कन्हैया

अहले गोकुल पूछ रहे हैं इक छोटी सी बात कन्हैया
छोड़ के हमको बोलो कैसे हो कंसों के साथ कन्हैया

नाम तुम्हारा ले लेकर वो मुझको ही ललकार रहे
 भक्त बने सब खींच रहे हैैं चीर मेरा दिन-रात कन्हैया

नाग द्वेष का फन काढ़े फिर आ बैठा है यमुना में
साथ हमारे है तो पहले आके उसको नाथ कन्हैया

दहशत का पहरा है अबके होठ पे सबके ताले हैं
सांँसत में हैं इस धरती पर फिर गांँधी सुकरात कन्हैया

मानवता की लाज बचाने आए थे तुम धरती पर
दिखला दो इसबार वही फिर से  औकात कन्हैया

माल ख़ज़ाने मत दो हमको तुमसे है अरदास यही
देना है तो दे जाओ बस इज़्ज़त की सौगात कन्हैया

पनघट सारे सूने सूने सहमी सहमी राधा है
बेकाबू-सी फ़ैल रही है दुष्कर्मों की रात कन्हैया

शंख महाभारत का  तुमने  फूंक दिया था जाने क्यों
चुप बैठे हो बदतर है जब उससे भी हालात कन्हैया

प्रलय बिगुल हम फूंक रहे हैं कर देना तू माफ़ हमें
सहते जाएंगे कबतक यूं ज़ुल्मों के आघात कन्हैया


Tuesday, July 17, 2018


सावन (ललित निबंध)

हमारे देश में महीनो व ऋतुओं की महज गिनती नहीं होती उनकी विनती होती है। बड़े पावन व मनभावन तरीके से उनका आह्वान किया जाता है। हर मौसम, हर महीना अपने अपने अंदाज और रिवाज से हमारी जलवायु को संस्कार देता है, व हमारी प्रकृति का परिष्कार करता है । सच कहा जाए तो प्रकृति का अनमोल वरदान हैं जिसकी रचना हमारे जीवन को  समरस बनाने के लिए सृष्टि नियंता ने खूब सोंच समझकर किया है। इन्हीं मेसे एक अन्यतम वरदान है सावन का जिसके स्मरण मात्र से मन प्राणों मे ऊर्जा का संचार हो जाता है। हमारी परंपरा में चतुर्मास की शुरूआत भी मानसून के साथ होती है यों तो मानसून स्वयं में एक महापर्व है और इस महापर्व में त्यौहारों का समागम हो जाए तो बात ही क्या है। त्यौहार, हमारे आत्मिक व शारीरिक शोधन के सटीक साधन तो है ही सामाजिक और पारिवारिक परिवेश में समावेश होने उसके साथ समायोजन करने का एक सशक्त माध्यम भी है. यह हमें अपनी संस्कृति से अवगत होने व उससे घुलने मिलने का सुनहरा अवसर भी देता है और इसका आरंभ होता है मनपसंद महीना सावन से।

वही सावन जिसे ताजगी और तरावट का प्रतीक माना जाता है.वही सावनन जिसे जेठ की तपन से तमतमाये हुए जड़चेतन का मनमीत माना जाता है, वही सावन जिसमें बादलों की घनिष्ठता धरती के तन बदन को गुदगुदाती है, उसके अंग अंग में जोश और उमंग भरती है, वही बादल जिसे यक्ष अपना दूत बनाकर अपनी प्रेयसी यक्षिणी के पास भेजता है. वही यक्षी जिसका प्रियतम अपने स्वामी कुबेर के कोप भाजन का शिकार है और उससे हजारों मील दूर रामगिरी मे विरह का दंश झेल रहा है. एक साथ निर्वासन और विरह का दंड भोगता हुआ यक्ष उस पल अति भावुक हो उठता है जब आषाढ़ की पहली बूँद उसकी सुप्त शिराओं में मादकता का प्रवाह करने लगती है. वह भावविभोर हो जाता है, भाव विह्वलता की पराकाष्ठा यहाँ तक होती है कि उसे संदेश संप्रेषण के समकालीन साधनों जैसे शुक, सारिका, तोता, कबूतर आदि की सुध ही नहीं रहती. यदि सुध रही भी हो तो संभव है प्राणि जगत से उसका भरोसा उठ गया हो, इस संदेह पर कि हो न हो ये मासूम परिंदे न जाने कब किस सैय्याद (शिकारी) की फाँस में आ जाए और उनके गले में बंधा उसका कमसिन, कोमल व अनछुआ संवाद अपनी मंजिल पर पहुँचने के पहले ही न दम तोड़ बैठे. अंततः आषाढ़ की अनछुई बौछार का शिकार यक्ष, मेघ को ही अपना दूत बना लेता है. गंतव्य की ओर रवाना करने से पहले उसे रामगिरी से अलकापुरी के बीच आने वाले अनेक मनोरम पड़ावों और ठहरावों से अवगत कराता है. चलते चलते उसे यह भी नसीहत देता है कि अलकापुरी पहुँचकर वह इस तरह न गरजे की उसकी प्रियतमा की नींद उचट जाए और अपने प्रियतम के साथ उसके स्वपनिल आलिंगन का अधखिला मधुमास बिखर जाए. बल्कि अपने संजीवनी छुअन से हौले हौले उसके नाजुक नसों में उल्लास का संचार करे और जब वह स्वाभाविक रूप से जग जाए तो उसे बताए कि मिलन का महा समुंदर अपना बाहुपाश फैलाए तुम्हारे पास और पास आ रहा है. निस्संदेह विश्व साहित्य की यह पहली घटना है जिसमें प्रकृति के अमोघ अस्त्र मेघ को प्रेम का संदेशहर बनाया गया है. मेघ जिसमें पानी होता है, रवानी होती है और वह सबकुछ होता है जिसमें जिंदगानी होती है. इसीलिए तो उसके स्पर्शमात्र से पूरी कायनात खिलखिला उठती है, लहलहा उठती है. कमसिन कपोलों से रासलीला करती बारिश की बूँदे भला किसे रसीला नहीं बनाती है. यदि नहीं तो फिर गाँव एक ठेठ नायिका अपने विरह और प्रेम का इजहार इन शब्दों में क्यों करती
सावन हे सखी सगरो सुहावन ऱिमझिम बरसेला मेघ हे,
सबके बलमुआ राम घरे घर आएल हमरो बलमुआँ परदेश हे।

एक विरहिन अपनो मनो भावों का बयान करते हुए कह रही है कि हे सखि सावन का यह महीने में हर तरफ सुहाना है । रिमझिम बारिश हो रही है । सभी के साजन अपने अपने घर आ चुके हैं लेकिन मेरे साजन अभी तक परदेश में है। ये उद्गार बेशक उस दौर की नायिका का जब उसके हाथ में संचार के आधुनिक गजट या साधन नहीं थे। जब गौना कराने के बाद उसका पति, उस घर छोड़कर रोजी रोजी कमाने के लिए दूर चला जाता था। उसे दिलासा दिया जाता था कि अगली बार जब ढ़ेर सारे रुपये कमा कर वह  लौटेगा तो उसके लिए सोने का हार बनवा कर लेते आएगा। इसी उम्मीद पर सावन भादो की घातक फुहारों की चोट सहती रहती। लेकिन इस चोट से जब उसका जिया बेहाल हो जाता तो इसका बयान गीतो के माध्यम से करतीं।       
 ऐसा शायद ही कोई हो जो इस मौसम की भुँईलोट पुरवाई की मनचाही चोट से लहालोट न हुआ हो. वस्तुतः मानसून वह उद्दीपक है जो एक तरफ विरह की ज्वाला को भड़काता है तो दूसरी तरफ समागम के अनुभव को गहराता है.
इसीलिए तो किसी ने कहा है
जब भी सावन की रंगीनियां आएंगी
चंद यादों की कुछ बदलियां आएंगी
हम भी तरसेंगे तेरे खतों के लिए
जब पड़ोसन के घर चिठ्ठियां आएंगी
यह बात और है कि चिठ्ठियों का मौसम अब बिल्कुल समाप्त हो गया है लेकिन यादों का सावन भादो तो शाश्वत और सनातन है. वह तो बेरोक टोक हमारी सांसो में फलता, फूलता  और घुलता रहेगा, कभी मादक बयार बनकर तो कभी शीतल फुहार बनकर, माध्यम चाहे ईमेल हो या एसएमएस हमारे सीने पर पूरी बुलंदी के साथ वह अपनी उपस्थिति दर्ज करता रहेगा



सावन (ललित निबंध)

हमारे देश में महीनो व ऋतुओं की महज गिनती नहीं होती उनकी विनती होती है। बड़े पावन व मनभावन तरीके से उनका आह्वान किया जाता है। हर मौसम, हर महीना अपने अपने अंदाज और रिवाज से हमारी जलवायु को संस्कार देता है, व हमारी प्रकृति का परिष्कार करता है । सच कहा जाए तो प्रकृति का अनमोल वरदान हैं जिसकी रचना हमारे जीवन को  समरस बनाने के लिए सृष्टि नियंता ने खूब सोंच समझकर किया है। इन्हीं मेसे एक अन्यतम वरदान है सावन का जिसके स्मरण मात्र से मन प्राणों मे ऊर्जा का संचार हो जाता है। हमारी परंपरा में चतुर्मास की शुरूआत भी मानसून के साथ होती है यों तो मानसून स्वयं में एक महापर्व है और इस महापर्व में त्यौहारों का समागम हो जाए तो बात ही क्या है। त्यौहार, हमारे आत्मिक व शारीरिक शोधन के सटीक साधन तो है ही सामाजिक और पारिवारिक परिवेश में समावेश होने उसके साथ समायोजन करने का एक सशक्त माध्यम भी है. यह हमें अपनी संस्कृति से अवगत होने व उससे घुलने मिलने का सुनहरा अवसर भी देता है और इसका आरंभ होता है मनपसंद महीना सावन से।

वही सावन जिसे ताजगी और तरावट का प्रतीक माना जाता है.वही सावनन जिसे जेठ की तपन से तमतमाये हुए जड़चेतन का मनमीत माना जाता है, वही सावन जिसमें बादलों की घनिष्ठता धरती के तन बदन को गुदगुदाती है, उसके अंग अंग में जोश और उमंग भरती है, वही बादल जिसे यक्ष अपना दूत बनाकर अपनी प्रेयसी यक्षिणी के पास भेजता है. वही यक्षी जिसका प्रियतम अपने स्वामी कुबेर के कोप भाजन का शिकार है और उससे हजारों मील दूर रामगिरी मे विरह का दंश झेल रहा है. एक साथ निर्वासन और विरह का दंड भोगता हुआ यक्ष उस पल अति भावुक हो उठता है जब आषाढ़ की पहली बूँद उसकी सुप्त शिराओं में मादकता का प्रवाह करने लगती है. वह भावविभोर हो जाता है, भाव विह्वलता की पराकाष्ठा यहाँ तक होती है कि उसे संदेश संप्रेषण के समकालीन साधनों जैसे शुक, सारिका, तोता, कबूतर आदि की सुध ही नहीं रहती. यदि सुध रही भी हो तो संभव है प्राणि जगत से उसका भरोसा उठ गया हो, इस संदेह पर कि हो न हो ये मासूम परिंदे न जाने कब किस सैय्याद (शिकारी) की फाँस में आ जाए और उनके गले में बंधा उसका कमसिन, कोमल व अनछुआ संवाद अपनी मंजिल पर पहुँचने के पहले ही न दम तोड़ बैठे. अंततः आषाढ़ की अनछुई बौछार का शिकार यक्ष, मेघ को ही अपना दूत बना लेता है. गंतव्य की ओर रवाना करने से पहले उसे रामगिरी से अलकापुरी के बीच आने वाले अनेक मनोरम पड़ावों और ठहरावों से अवगत कराता है. चलते चलते उसे यह भी नसीहत देता है कि अलकापुरी पहुँचकर वह इस तरह न गरजे की उसकी प्रियतमा की नींद उचट जाए और अपने प्रियतम के साथ उसके स्वपनिल आलिंगन का अधखिला मधुमास बिखर जाए. बल्कि अपने संजीवनी छुअन से हौले हौले उसके नाजुक नसों में उल्लास का संचार करे और जब वह स्वाभाविक रूप से जग जाए तो उसे बताए कि मिलन का महा समुंदर अपना बाहुपाश फैलाए तुम्हारे पास और पास आ रहा है. निस्संदेह विश्व साहित्य की यह पहली घटना है जिसमें प्रकृति के अमोघ अस्त्र मेघ को प्रेम का संदेशहर बनाया गया है. मेघ जिसमें पानी होता है, रवानी होती है और वह सबकुछ होता है जिसमें जिंदगानी होती है. इसीलिए तो उसके स्पर्शमात्र से पूरी कायनात खिलखिला उठती है, लहलहा उठती है. कमसिन कपोलों से रासलीला करती बारिश की बूँदे भला किसे रसीला नहीं बनाती है. यदि नहीं तो फिर गाँव एक ठेठ नायिका अपने विरह और प्रेम का इजहार इन शब्दों में क्यों करती
सावन हे सखी सगरो सुहावन ऱिमझिम बरसेला मेघ हे,
सबके बलमुआ राम घरे घर आएल हमरो बलमुआँ परदेश हे।

एक विरहिन अपनो मनो भावों का बयान करते हुए कह रही है कि हे सखि सावन का यह महीने में हर तरफ सुहाना है । रिमझिम बारिश हो रही है । सभी के साजन अपने अपने घर आ चुके हैं लेकिन मेरे साजन अभी तक परदेश में है। ये उद्गार बेशक उस दौर की नायिका का जब उसके हाथ में संचार के आधुनिक गजट या साधन नहीं थे। जब गौना कराने के बाद उसका पति, उस घर छोड़कर रोजी रोजी कमाने के लिए दूर चला जाता था। उसे दिलासा दिया जाता था कि अगली बार जब ढ़ेर सारे रुपये कमा कर वह  लौटेगा तो उसके लिए सोने का हार बनवा कर लेते आएगा। इसी उम्मीद पर सावन भादो की घातक फुहारों की चोट सहती रहती। लेकिन इस चोट से जब उसका जिया बेहाल हो जाता तो इसका बयान गीतो के माध्यम से करतीं।       
 ऐसा शायद ही कोई हो जो इस मौसम की भुँईलोट पुरवाई की मनचाही चोट से लहालोट न हुआ हो. वस्तुतः मानसून वह उद्दीपक है जो एक तरफ विरह की ज्वाला को भड़काता है तो दूसरी तरफ समागम के अनुभव को गहराता है.
इसीलिए तो किसी ने कहा है
जब भी सावन की रंगीनियां आएंगी
चंद यादों की कुछ बदलियां आएंगी
हम भी तरसेंगे तेरे खतों के लिए
जब पड़ोसन के घर चिठ्ठियां आएंगी
यह बात और है कि चिठ्ठियों का मौसम अब बिल्कुल समाप्त हो गया है लेकिन यादों का सावन भादो तो शाश्वत और सनातन है. वह तो बेरोक टोक हमारी सांसो में फलता, फूलता  और घुलता रहेगा, कभी मादक बयार बनकर तो कभी शीतल फुहार बनकर, माध्यम चाहे ईमेल हो या एसएमएस हमारे सीने पर पूरी बुलंदी के साथ वह अपनी उपस्थिति दर्ज करता रहेगा


Tuesday, September 13, 2011


हिन्दी का हाल
सुबह- सुबह जैसे ही
घर में फोन घनघनाया
समझा बुलावा कौन बनेगा
करोड़पति से आया
रिसिवर कान से सटा
और प्रश्न
एक विदेशी फ्रेंड का आया
यार आपके यहाँ हिन्दी
कैसी चल रही है
मैने कहा फूल फल रही है
हिन्दी
पखवाड़ों में पल रही है
साठ सालों से
बेचारी यों ही टल रही है
भाई देख
माँ किचेन तक जरूर फिट है
लेकिन बीवी
फौरेनवाली ही सुपरहिट है
तभी बीवी बड़बड़ाई झपटकर
रिसिवर हाथ से छुड़ाई
और डपटकर बोली
सुबह-सुबह हिन्दी बोल रहे हो
अरे अपनी तो फोड़ चुके किस्मत
अब बच्चों की क्यों फोड़ रहे हो
क्या मजाल इस हिन्दी में
बिन होंठ सटाए
लव यू, डीयर स्वीटहार्ट
सैंडल कह जाएं
फिर फिजूल में हम क्यों
लिपिस्टिक उड़वाएँ
मित्रों! अब तो समझ गए होंगे
मेरी मैडम हिन्दी बोलने से
घबड़ाती है
क्यों नौकर रमुआ को
रैम कहकर ही
बुलाती है.